हम क्यों जी रहे हैं ?
जैसे – कुत्ते ,बिल्ली, कीड़े- मकोड़े, हाथी, बंदर, मच्छर-मक्खी जी रहे हैं
नहीं !!
हम लोग मनुष्य हैं। वास्तव में इस प्रश्न का उत्तर ‘तत्व ज्ञान’ के अंतर्गत आता है।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य है – “मोक्ष प्राप्ति”
अर्थात हम मनुष्य ‘मोक्ष’ प्राप्त करने के लिए जी रहे है। हमे अपने जीवनकाल में वे सरे कार्य करने है जो मोक्ष के मार्ग पर हमे अग्रसर करते है, और उन कार्यो से बचना है, जो उस प्रगति में बाधक बनते है। मनुष्य के अलावा सभी योनियाँ ‘भोग योनियाँ है अर्थात सजा पाए हुए जीव है जिसकी सजा पूरी हो जाएगी वह उस योनि से मुक्त हो जायेगा। मनुष्य योनि ‘कर्म योनि’ है अर्थात इस योनि में आप सारी सजाये काट लेने के पश्चात् ऐसा कर्म करने के लिए आये है कि अपने मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त कर सके। यदि आप चाहे तो अन्य जीवो के समान आलसी और नाली के कीड़े के समान (खाना, संतति उतपन्न करना , और मर जाना ) जीवन जी सकते हे।
प्रकृति ने इतनी सहजता से जीने लायक वातावरण मनुष्य के लिए नहीं छोड़ा है। बिभिन्न प्रकार के जानवर, कीट-पतंगे बाघ से लेकर बैक्टीरिया तक सरे जीव आपके स्वास्थ्य को चट कर जाने के लिए त्यार बैठे है, जिस ओर भी आप लापरवाह होंगे उसी ओर चोट पड़ेगी। समझलो, आपको पैरासूट से एक जंगल में छोड़ दिया गया है। अब खाना पीना, बचना मरना आपके हाथ में है। अब इस जंगल में न तो आप बहुत कठोर बनकर जी सकते है, न बहुत मृदुल रहकर –
न इतना कडुवा बन, चक्खे वो थूके।
न इतना मीठा बन, कि खा जायें बिना भूखे।।
तात्यपर्य यह हे कि सम्यक व्यव्हार करना आपकी मज़बूरी बन जाती है
समत्वं योग उच्यते:-
यही तो श्रीमद-भगवत-गीता में कहा गया है। ‘समत्व’ अर्थात सम्यक भाव को बनाये रखने के लिए आपको अपने कर्म करने का ऐसा ढंग अपनाना पड़ता है कि ‘समत्व’ वाला नियम न टूटे। यह काम करने का ढंग अर्थात कर्म करने में ऐसी कुशलता बनाये रखना आपके लिए आवश्यक हो जाता है।
गीता के 6 अध्याय में इसीलिए तो कहा है- योग: कर्मसु कौशलम
अब इन दोनों सिद्धांतो पर चलने के लिए जीवन में कितने स्थानों पर आपका मन करेगा कि सब कुछ तोड़- फोड़ दू, कितने स्थानों पर इतने प्यारे नजारे उपस्थिति होंगे , मन करेगा कि बस यही बना रहु।
क्रोध- लालच – मोह- लोभ- ईर्ष्या – द्वेष और जाने क्या क्या स्थितियाँ सम्मुख आएगी। परन्तु उन सबको आप अपनी परिस्थिति के आधार पर झेलेंगे दबाएंगे अथवा अंदर कुढ़ते हुए भी बाहर प्रकट नहीं होने देंगे,
यही पतंजलि ने कहा है :-
योगश्चित्तव्रत्तिनिरोध:
(चित्त के वृत्तियों का निरोध करना योग है। )
तात्पर्य यह है की योग आपकी जीवन शैली है, कुछ अलग प्रकृिया नहीं है। जो कुछ आप अपनी जीवन शैली में कर रहे है , शास्त्र उसे ठीक से करने का ढंग बताता है।
जीवन जीने के लिए अगली आवश्यकता ‘ स्वास्थ्य’ की है। जो जितना स्वस्थ नहीं,
वह उतना समझो नर्क में गया। यदि आप पुरे अस्वस्थ है , तो पुरे नर्क में गए समझो। स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए हाथ-पेरो का संचालन आवश्यक है। किस प्रकार के व्यायाम और आसन करने से किस प्रकार का स्वास्थ्य-लाभ होता है। यह सब योगासन प्रकरण का विषय बन जाता है। श्वास क्रिया तो सब का मूल है। तेज श्वास, धीमी श्वास , ठंडी श्वाश, गर्म श्वास आदि विभिन्न प्रकार की श्वास व्यवस्था के लाभ नहीं सम्बन्धी विवेचनाएँ ‘प्राणायाम‘ के अंतर्गत रहती है।
योगाचार्य अर्जुन सिंह
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