योग की कुछ परिभाषाएँ
महर्षि पतंजलि के अनुसार
“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः
चित्त की सभी वृत्तियों के विरोध में उत्पन्न अवस्था योग है। यहाँ पांच इन्द्रियों (ज्ञान) व् पांच कर्मेनिन्द्रियो को बाहय व्यवहार के लिए जिम्मेदार मन गया है। इसी प्रकार अंत:व्यवहार के लिए, सिद्धि के लिए मन , बुद्धि एवं अहंकार का उपयोग करता है। योग दर्शन के मन को ही चित्त कहा गया है , मन की एकाग्रता से ही चित्त वृत्ति का निरोध होता है यही योग है। कह सकते हैं की ‘जब मन विविध विषियो में अपने प्रवृत्ति रूप कार्यो को ना करते हुए शांत, व्यवस्थित, निश्चल तथा एकाग्र स्थिति में होता हैं उसी अवस्था को योग कहते हैं।
योगस्थ: कुरु कर्मणि सङ्ग त्यक्त्वा धनज्जय।
सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। (गीता)
अर्थात कर्मों का संग त्यागकर करना, आसक्ति त्यागकर कर्म करना सुव्यवस्थित होकर शांत व् निद्व्रन्द्वपूर्वक समस्थिति को प्राप्त योग कहते हैं।
अन्य परिभाषाएँ
1: योग वह अवस्था हैं जिसमे मन, इन्द्रियों और प्राणो की एकता हो जाती हैं।
2: पांच इन्द्रियों, मन व् बुद्धि की स्थिर अवस्था योग हैं।
3: संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मा परमात्मनो: ।
अर्थात जीवनमा व् परमात्मा के संयोग की अवस्था योग हैं।
4: अपान व् प्राण की एकता करना योग हैं। अर्थात सूर्य व् चंद्र नाड़ी की संयोग तथा परमात्मा से जीवात्मा को मिलन योग हैं।
5: अग्नि पुराण में ब्रह्म में चित्त की एकाग्रता योग हैं। 6: रांगेय राघव ने कहा कि :- शिव और शक्ति का मिलान योग हैं
योगाचार्य अर्जुन सिंह
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